Sunday, February 7, 2010



में हूँ या नहीं ,टूटे आयनों में देखता हूँ

विश्वास में ही विश्वास को टूटता देखता हूँ


हैं ,था या होगा की परवान चढ़े

बर्फ में जमे अस्तित्व को नदी में देखता हूँ


नैतिकता और सत्व आज भी है मुकम्मल

इसी सोच में दूसरो की सोच बदलता देखता हूँ

1 comment:

नीरज गोस्वामी said...

"बर्फ में जमे अस्तित्व को नदी में देखता हूँ"

बेहतरीन शब्दों से रची अद्भुत भावपूर्ण रचना ...बहुत बहुत बधाई
नीरज